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इंदिरा गांधी जी के मृत्यु पर कविता

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मैं जब भी इस कविता को पढ़ता हूँ तो मुझे बहुत दुःख होता है। यह कविता इन्दिरा गाँधी की मृत्यु पर लिखी गई थी।😢😢 मैं लिखते-लिखते रोया था मैं भारी मन से गाता हूँ जो हिम-शिखरों का फूल बनी मैं उनको फूल चढ़ाता हूँ मैंने उनके सिंहासन के विपरीत लिखा कविता गायीं पर उनके ना रहने पर आँखें आँसू भर-भर लायीं रह-रहकर झकझोर रही हैं यादें ख़ूनी आँधी की जैसे दोबारा से हत्या हो गयी महात्मा गाँधी की वो पर्वत राजा की बेटी ऊंची, हो गयी हिमालय से जिसने भारत ऊँचा माना सब धर्मों के देवालय से भूगोल बदलने वाली वो इतिहास बदलकर चली गयी जिससे हर दुश्मन हार गया अपनों के हाथों छली गयी शातिर देशों की माटी ने ये ओछी मक्कारी की है पर घर के ही जयचंदों ने भारत से गद्दारी की है बी.बी.सी. से धमकी देना कायरता है, गद्दारी है हम और किसी को क्या रोयें गोली अपनों ने मारी है हमने मुट्ठी भींची-खोली लेकिन गुस्से को पी डाला हम कई समंदर रोयें हैं हमने पी है गम की हाला हमने अपना गुस्सा रोका पूरे सयंम से काम लिया हिन्दू-सिक्ख भाई-भाई हैं इस नारे को साकार किया लेकिन हिन्दू-सिक्ख भाई हैं ये परिपाटी नीलाम ना हो केवल दो-चार कातिलों से पूर